दशहरे पर रावण को जलाना कितना उचित?

in #hindi6 years ago (edited)


चित्र सौजन्य: Kyn Chaturvedi

देश के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्व दिवाली और दशहरे के शुभ दिन शुरू हो चुके हैं। कल हम सभी दशहरे का पर्व मनायेंगे! सभी को मेरी हार्दिक शुभकामनायें!

लेकिन दशहरे की पूर्व संध्या पर मैं विचार कर रहा था कि दशहरे के पर्व को मनाने के लिए रावण के पुतले का दाह करना क्या उचित है?

हालाँकि जब मैं एक बच्चा था तब एक वर्ष मैंने भी रावण का पुतला बना, जलाने की पहल की थी। किंतु उस समय मैं किसी विचारधारा का अनुसरण नहीं करता था। वो तो, मैं जहाँ रहता था, वहाँ पर कोई रावण जलाने की रस्म ही नहीं होती थी। तो मैंने सोचा कि यहाँ पर भी बताया तो जाए कि रावण को जलाने की परंपरा भी होती है। 😊

उन दिनों मैं असम के बीहड़ जंगलों में रहता था। हालाँकि अधिकांश लोग हिन्दू थे लेकिन वहाँ पर रावण का दाह कर, दशहरा पर्व मनाने की संस्कृति नहीं थी। तो मैंने एक छोटा-सा आदमकद पुतला तैयार किया। उसके दस मुंह बनाये और उन पर वाटर-कलर का इस्तेमाल कर सुसज्जित किया।

मेरे वहाँ पर अधिक मित्र नहीं थे और मुझे नहीं पता था कि कितने लोग इस जलसे में हिस्सा लेंगे।लेकिन मेरा जूनून देखते हुए मेरे पिताजी के एक सहकर्मी, पास में नागालैंड के एक शहर दीमापुर जाकर मेरे लिए कुछ पटाखे और मिठाई खरीद लाये। बस, फिर क्या था, मैंने उस पुतले में कई बम लगा दिए और दशहरे के दिन तक तो सभी को पता चल गया कि मैं रावण जलाने वाला हूँ।

ठीक दिन, नियत समय पर पुतले को पास के एक मैदान पर ले जाने के लिए कई बच्चे इकट्ठे हो गए और उसे पटाखों के साथ जलाया। मैंने सभी को मिठाई बांटी। सभी को बड़ा मजा आया। पटाखों से तो बड़ा रोमांच उत्पन्न हो गया क्योंकि वहाँ तो पटाखे भी नहीं मिलते थे और दशहरे जैसे पर्व पर भी कोई पटाखे नहीं चलाता था।

आज मैं सोचता हूँ कि कितना अच्छा था वो माहौल। न पटाखे, न जुलूस, न अग्नि-दाह! बड़ा ही शांत और प्राकृतिक वातावरण था उस जंगल में। उसके बाद मैंने कभी रावण नहीं जलाया और न ही इस प्रथा का समर्थन किया।

हालाँकि हिन्दू धर्म में रामायण द्वारा श्रीराम को बहुत महिमा मंडित किया गया है। लेकिन मेरा मत ऐसा है कि इतिहास जब भी लिखा गया, लिखने वाले या लिखवाने वाले ने हमेशा घटना को एक-पक्षीय नजरिये से वर्णित किया है। अतः हमें केवल जीतने वाले राजा को चरितार्थ करती कहानी ही पढ़ने को मिलती है, क्योंकि हारने वाले को अक्सर मौत के घाट उतार दिया जाता था और उसके पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं होता था।

जहाँ तक रामायण का सवाल है, अगर इसमें वर्णित वृतांत के अनुरूप भी विचार किया जाए, तो भी मुझे रावण का ऐसा चरित्र नहीं मालूम होता कि उसको इस तरह से जला कर अपमानित किया जाए। आज के समय में हमारे पास रावण से सीखने को भी बहुत कुछ है।

देखा जाये तो रावण वाकई बहुत शक्तिशाली था और उसे परास्त करना किसी के बस की नहीं थी। इसके बावजूद उसका चरित्र अति उत्तम था।

मैंने सुना है कि सीता के स्वयंवर में रावण का जीतना लगभग तय था। किंतु राम को जीताने के लिए चाल खेली गई और लंका में आग लगने की गलत अफवाह उड़ाई गई। एक जिम्मेदार राजा के तौर पर रावण तुरंत अपने देश लंका लौट गया। वहाँ जब उसने पाया कि उसके साथ धोखा किया गया है तो वह पुनः सीता के स्वयंवर में लौटा। लेकिन तब तक स्वयंवर पूर्ण हो चुका था। अब आप कल्पना करें कि आप रावण के स्थान पर होते तो क्या करते? किसके अहम् को ठेस नहीं पहुँचती है? और फिर वह तो उस समय का सर्वशक्तिशाली राजा था!

तद्नुसार अगर न्याय हो तो रावण का विवाह सीता से होना चाहिए था। हालाँकि रावण ने सीता का अपहरण उससे विवाह करने के लिए नहीं किया था। बल्कि वह तो उसको अपमानित किये जाने से जो अहम् को ठेस पहुँची थी, उसका प्रतिशोध लेना चाहता था।

आपने गौर किया होगा कि सीता के अपहरण के बाद भी उसने उसके साथ कोई बदसलूकी नहीं की, बलात्कार नहीं किया, न ही कभी कोई छेड़-छाड़ की अथवा औछी हरकत ही की। चाहता तो वो उसे जबरन अपनी रानी बना सकता था। उसे कष्ट दे सकता था, प्रताड़ित कर सकता था।

लेकिन रावण ने सीता को पूरे सुख और आराम से रखने का हर संभव प्रयास किया। अनेक दासियाँ उसकी सेवा में हमेशा हाजिर रहती थी। वन में राम जितना सुख सीता को न दे पाए होंगे, उतना रावण ने उसे मुहैया करवाया। इसलिए कि उसकी सीता से कोई दुश्मनी नहीं थी। बदला तो राम से लेना था।

आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो क्या कोई रावण की तरह बर्ताव कर सकता है? ज्यादातर पुरूष मौकापरस्त हैं। मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर रामायण काल में ट्विटर-फेसबुक मौजूद होता और ये #MeToo की मुहीम चली होती, तब भी सीता कभी रावण के विरोध में एक शब्द भी नहीं कह पाती। इतना मर्यादा पूर्ण व्यवहार था रावण का सीता के साथ।

और राम को देखो! उसने सीता कीअग्नि-परीक्षा ली!
विचित्र! विचित्र ही नहीं अपितु घृणित!

पति-पत्नी के रिश्ते पर यह एक कलंक था। क्या अगर सीता के साथ कुछ दुर्व्यवहार हुआ होता तो राम उसे स्वीकार नहीं करते? इस वाकये से तो यही सिद्ध होता है!

खैर जो भी रहा हो, लेकिन फिर भी मुझे किसी की मौत पर जश्न मनाना उचित नहीं लगता है। चाहे रावण कितना भी घटिया व्यक्ति रहा हो! हम तो अपनी गरिमा बनाये रखें!

क्या हम इतने गिर जाए कि किसी की मृत्यु के बाद उस दिवंगत आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना करने की अपेक्षा हम प्रतिवर्ष उसको जलाकर उसकी मौत पर जलसा करें?

आप कहेंगे कि पुतला जलाना तो मात्र सांकेतिक है। हम तो बुराई पर अच्छाई की विजय का त्यौहार मना रहे हैं।
ठीक है भई, मनाओ! लेकिन संकेत तो उचित हो! पराजित व्यक्ति की मौत का जश्न हमारे अहम् को ही तो पोषित कर रहा है। और रावण को अहं का ही संकेत माना जाता है।

कहते हैं न कि

रावण को "मैं" ने मारा!

आओ, इस त्यौहार पर हम अपने "मैं" को ...अपने अहंकार को मारने का प्रयत्न करें।

जय श्री राम!

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रावण का दोष ये था कि उसने एक औरत के अपमान का बदला दूसरी औरत के अपमान से लेने की कोशिश की। जब राम और लक्ष्मण ने शूर्पनखा का अपमान किया तो उसको उसी समय राम और लक्ष्मण से बदला लेना था न कि सीता का हरण करना था।
आज भी भारतीय उपमहादीप में देखे तो अगर किसी की लड़की किसी लड़के के साथ भाग जाती है तो कई बार लड़की पक्ष वाले लड़के की बहिन या माँ का रेप कर उससे बदला लेते हैं। ये ही रावण की मानसिकता थी। बाकी क्या था और क्या न था -ये तो कहानी है। हालांकि रावण के पुतले को जलाने का कोई अर्थ नहीं है। ये लोगों के लिए मनोरंजन से ज्यादा कुछ भी नहीं है। कुछ लोगों के लिए पुतला दहन केवल एक परंपरा को ढोना भर है। जहां तक आज के परिपेक्ष्य की बात है, ये सब करना गलत है क्योंकि पुतला दहन करना पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। इसके लिए कितनी लकड़ी काटी जाती है और कितना प्रदूषण होता है, ये किसी से छिपा नहीं है।

जी, आपका विश्लेषण भी ठीक प्रतीत होता है। लेकिन मेरा मानना है कि लक्ष्मण ने जो किया वह या तो over-reaction था या फिर नाक-काटना एक प्रतीक रूप में कहा गया और उसने सच में उसका मुंह काला कर दिया हो! जो भी हुआ अनुचित ही हुआ था।

और आपका कथन बिलकुल ठीक है कि पुतला दहन और पटाखों का प्रयोग हमारे ही पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहा है। परंपराएं तो मानव समाज को सकारात्मक रूप से बांध कर सृजनात्मक गतिविधियों में व्यस्त रहने के लिए बनाई जाती थी। किंतु उनकी प्रासंगिकता अब समाप्त-सी हो गई है और हम सिर्फ उन्हें ढो भर रहे हैं।

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बहुत ही अच्छी जानकारी दी और विशलेषण किया है आपने।

धन्यवाद आपका!

हर साल दशहरे में रावण का पुतला ही जलाया जाता है। रावण को समाप्त करने का सामर्थ साधारण मानब में कहाँ। आज भी वह जीबित है राम सा मुखौटा पहने हुए मानव रूप में।

सही कहा आपने! आज तो इतने रावण मौजूद हैं और वो भी मुखौटों में छुपे हुए! कम से कम पहले खुल कर सामने तो आता था!

वैसे रावण तो हर व्यक्ति में विद्यमान है। बस अपने अन्दर झाँक कर देखने की देर है!

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