श्री राम का वन गमन
गुरु वशिष्ठ ने वनवास के लिये जाते समय राम को यह स्मरण कराया कि तुम एक क्षत्रिय हो और इस कारण तुम्हें प्रत्येक स्थिति में अपने क्षात्र-धर्म का पालन करने के बोध को अपने मन-मस्तिष्क में रखना चाहिये। क्षात्र-धर्म के पालन का अर्थ है कि तुम्हें अपने छत्र की मर्यादा और दण्ड देने की शक्ति का सदा ही ज्ञान होना चाहिये। एक सच्चा क्षत्रिय जहाँ भी होता है वह प्राणीमात्र के कल्याण के विषय में सोचता है और उस दिशा में समुचित प्रयास करता है। क्षत्रिय वंश में जन्म लेने का अर्थ है कि तुम्हें पापीजनों को दण्डित करना चाहिये और उनके अनाचार से समाज को मुक्त करना चाहिये। एक क्षत्रिय को इन कार्यों को करने के लिये किसी के आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। उसका अपना कर्तव्यबोध इन कार्यों के सम्पादन हेतु पर्याप्त होता है। जो भी तुम्हारी ओर किसी भी अपेक्षा से देखता है वह प्रजावत स्नेह का अधिकारी है और उसकी अपेक्षाओं का यथोचित सम्मान और निदान होना चाहिये। साथ ही अपने शत्रुओं का साहस तनिक भी बढ़ने नहीं देना चाहिये और उनसे अविलम्ब वैर-शोधन कर इसका निराकरण किया जाना चाहिये। यही बात मार्ग में मिलने वाले प्रत्येक ऋषि ने उनसे कही और राम ने अपने पूरे वनवास काल में इसका अक्षरश: पालन किया। जय श्री राम।