सुख
हम अक्सर ये सुनते, देखते और अनुभव करते हैं,कि मानव जीवन में सुख कम और दुःख ज्यादा हैं।
तो क्या मनुष्य जन्म दुःख झेलने के लिए ही हुआ हैं? या इस जीवन मे परम् आनन्द की प्राप्ति की जा सकती हैं?
तो इसका जवाब हैं, 'सुख की प्राप्ति मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार हैं।'
तो प्रश्न बनता हैं- कैसे ?
सुख की प्राप्ति के लिए बहुत ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता होगा। जप, तप, ध्यान आदि करने पड़ते होंगे। बहुत सी कुर्बानियां देनी पड़ती होंगी। बहुत कुछ पाना या त्यागना पड़ता होगा। आदि आदि..
पर इसका जवाब भी यही हैं, 'कि नही, उपरोक्त में से कुछ भी नही करना पड़ता।
सुख तो हमारे अंदर भरा पड़ा हैं। सुख तो हमारा स्वभाव हैं।
बस आवश्यकता इसे पहचानने की हैं। सुख के भंडार तो हमारे भीतर भरे पड़े हैं, पर जानकारी के अभाव में हमने उन भंडारों पर ताला लटका रखा हैं। भंडार पर लगे ताले को खोलने मात्र की देर हैं।
कैसे खोंले ?
आइये जाने! मनुष्य शरीर मे बैठी आत्मा अजर अमर हैं, ये न तो कभी मरती हैं और न ही कभी जन्म लेती हैं। इसको अपने लिए कुछ भी नही चाहिए, न ज्ञान, न विज्ञान, न संसाधन, न सुख, न दुख और न ही वो सब कुछ, जिसको पाने की मनुष्य लालसा करता है अथवा सपने देखता हैं।
तो आत्मा को तो कुछ भी नही चाहिए, चाहिए किसको?
ये सब इस शरीर को चाहिए, जबकि ये शरीर न तो अजर अमर हैं और इसका मरणा भी निश्चित हैं।
आत्मा जब अन्य किसी पशु पक्षी शरीर मे होती है, तो सुखी होती हैं। क्योकि वहां उस शरीर को किसी प्रकार की लालसा नही होती। जो मिला उसी में खुश। किसी वस्तु का संग्रह नही, कुछ भी पाने की लालसा नही। न तो कुछ अपना ओर न ही कुछ पराया।
जब अन्य कोई पशु पक्षी दुखी नही, जिनके पास न तो हाथ पैर हैं, न सोचने समझने की शक्ति हैं, न संचय के साधन ओर न संचय की आवश्यकता।
जबकि मनुष्य ये सब होते हुए भी दुखी हैं।
समझे आप दुख का कारण !!
दुःख का मुख्य कारण हैं, मनुष्य का राह से भटक कर गलत राह पकड़ लेना।
मानव जीवन मिला हैं, प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को आवश्यकता अनुसार काम मे लेते हुए, बाकी के संसाधन दुसरो के लिए छोड़ दो अथवा जिन्हें उन संसाधनों की आवश्यकता हैं, उनको दे दो।
पर मनुष्य करता इसका उल्टा हैं, ये भी मेरा, वो भी मेरा, सब कुछ मेरा, अन्य किसी को कुछ भी नही मिले, सब कुछ मुझे मिल जाये।
यही दुख का सबसे बड़ा कारण हैं।
मानव जीवन का ध्येय प्राणी मात्र की सेवा करना होना चाहिए।
मानव को अहम इस बात का होना चाहिए कि, उसने अपनी आवश्यकता से अधिक संसाधनों को सबके लिए छोड़ दिया।
अपने माता पिता की सेवा, बड़ो को सम्मान, ईश्वरीय गुण गान, जरूरतमन्द की सहायता, बिना किसी को हानि पहुचाये अपना कारोबार, प्राणिमात्र के लिए दयाभाव आदि कर्म हमें दुखो से दूर रखते हैं। जबकि संग्रह करना, बड़ो को सम्मान नही देना, ईश्वर की साधना न करना, अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के जीवन से खिलवाड़ करना आदि कर्म दुखो का कारण बनते हैं।
फैसला हमारा हैं, हमें क्या चाहिए।
इस पोस्ट पर आपके विचार सादर आमंत्रित हैं।
आपका-indianculture1
Posted using Partiko Android
This post has received a 4.13 % upvote from @boomerang.