मानवता संरक्षण का अस्त्र : अहिंसा (भाग # २ ) | The War of Humanitarian Conservation : Non-violence (Part # 2)

in #life6 years ago

मानवता संरक्षण का अस्त्र : अहिंसा (भाग # २ ) [The War of Humanitarian Conservation : Non-violence (Part # 2)]

प्रश्न यह है कि जन सामान्य को हिंसा या अहिंसा का आभास कैसे करवाया जाए, ताकि वह उससे बच सके । मनुष्य हिंसा इसलिए करता है क्योंकि वह हिंसा को हिंसा नहीं मानता । या अहिंसा में उसकी आस्था नहीं । हमारे शास्त्रों में लिखा है – ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पंडित:’ अर्थात् जो व्यक्ति सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान ही देखता है, वह ज्ञानी है, पण्डित है । इस उक्ति के अनुसार यदि हम दुसरे जीवों में अपनी ही आत्मा के दर्शन करें तो हिंसा होगी ही नहीं और यदि कहीं होगी भी तो उसके वेदना हम बड़ी तीव्रता से ग्रहण करेंगे । इस तरह धीरे-धीरे हिंसा खत्म हो जाएगी ।
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आज की हिंसावृत्ति बहुत कुछ योगदान पाश्चात्य सभ्यता का है । पश्चिमी देश भौतिक सुख-सुविधाओं को ही सब कुछ मानते हैं । वहां मनुष्य सिर्फ स्वयं को महत्तव देता है । उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य आधुनिक सुविधाएँ जुटाकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करना है । यांत्रिक उन्नति से आज दुनिया के सभी देश हमारे पड़ोसी शर्मा जी या वर्मा जी से अधिक निकट आ गए है । फिर पडौसियों का हम पर असर क्यों नहीं पड़ेगा ? यही कारण है कि हम बड़ी तेजी से पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगते जा रहे हैं ।

पश्चिमी देशों के लोग मांसाहारी हैं । जो लोग जीव हिंसा के द्वारा ही अपना भोजन प्राप्त करते हैं वे हिंसक क्यों नहीं होंगे और अहिंसा के महत्तव को भी कैसे स्वीकार करेंगे ? परिणाम यह हुआ है कि पूर्वी देशों के लोग, जो शाकाहारी हैं वे भी उनके सम्पर्क में आकर तेजी से मांसाहारी बनते जा रहे हैं । कहावत है – जैसा खाए अन्न, वैसा हो मन । भोजन के अनुसार ही मनुष्य का मन हो जाता है । जब प्रतिदिन के अन्न में मांस की मात्रा अधिक होगी या केवल मांस ही भोजन होगा, तो व्यक्ति के लिए किसी भी जीव का मांस प्राप्त करना उतनी ही सामान्य बात होगी जितनी बनिए के यहां से नमक की थैली खरीदना । मांसाहारियों के लिए मांस और अन्न में कोई फर्क नहीं है । दोनों ही पेट भरने की चीजें हैं बल्कि अन्न से भी अधिक महत्तव वहां मांस का है ।

गाँधी और महावीर कहते हैं, अहिंसा के बिना मनुष्य जाति सुखी नहीं हो सकती इसलिए अहिंसा जीवन का आवश्यक अंग है । पर पश्चिमी लोग कहते हैं हिंसा के बिना हमारा काम नहीं चल सकता । अब जिनका काम नहीं चल सकता उनकी वें जानें । किन्तु जिनका चल सकता है, वे मांसाहारियों का अंधानुकरण क्यों करे । मांसाहार से जितना लाभ होता है उससे कहीं अधिक हानि उठानी पड़ती है । मांसाहारी व्यक्ति की बुद्धि शाकाहारी की अपेक्षा कुछ मोटी होती है । किसी बात पर वह उतनी गहराई से विचार नहीं कर सकता । उसे क्रोध भी अधिक आता है, वह हिंसात्मक प्रकृति का हो जाता है और वृद्धावस्था में शाकाहारी की अपेक्षा उसके अंग जल्दी शिथिल और निष्क्रिय हो जाते हैं । ये वैज्ञानिक तथ्य हैं । इन सबसे अधिक उसे जीव हिंसा का पाप लगता है ।

अब तनिक विचार करें कि मांसाहार का मनुष्य पर क्या प्रभाव पड़ा है ? मनुष्य निरंतर हिंसात्मक प्रवृत्ति का होता जा रहा है । यहां तक की अन्य जीव-जंतुओं का मांस खाते-खाते अब वह मनुष्य का मांस चाहने लगा है । अभी कुछ ही दिनों पूर्व एक होटल के मालिक को गिरफ्तार किया गया । वहां एक स्थान से बच्चों के अस्थि-पंजर बरामद हुए । उस होटल में ग्राहकों को बच्चों का मांस परोसा जाता था । यह कोई यूरोप की नहीं, भारत के ही होटल की बात है ।

संसार के जो देश वैज्ञानिक दृष्टि से बढ़े-चढ़े हैं, उनमे स्वार्थ की भावना बहुत है । यह स्वार्थ की भावना ही हिंसा है । स्वार्थ के कारण ही आज विश्व के प्राय: सभी देशों में परमाणु अस्त्रों का संग्रह करने की एक बड़ी होड़ मची हुई है । सभी देशो में अपने अस्तित्व को लेकर असुरक्षा की भावना है । वे सोचते हैं कि जिसके पास सबसे अधिक परमाणु अस्त्र होंगे, वही सबसे अधिक शक्तिशाली होगा और अपने अस्तित्व की रक्षा के साथ अन्य देशों की सम्पति पर भी कब्जा कर सकेगा । इस स्वार्थ की भावना का कोई ओर-छोर नहीं, इसलिए परमाणु अस्त्रों का प्रयोग अपने पड़ोसी देश पर करता रहा है । द्वितीय विश्व युद्ध की तबाही को विश्व अभी भुला नहीं है पर इस तबाही से मनुष्य ने कोई सबक नहीं लिया । यदि लिया होता तो हिरोशिमा और नागासाकी की तबाही के बाद इन तमाम परमाणु अस्त्रों को समुंद्र में डाल देना चाहिए था ताकि मनुष्य जाति निश्चिंतता के साथ चैन की साँस ले सकती । किन्तु तब से परमाणु अस्त्रों का जखीरा बढ़ता ही जा रहा है और अब तो लगता है, दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी हुई है जो कभी भी विस्फोट कर इस दुनिया को राख के ढेर में बदल देगी ।

यदि सभी राष्ट्र अहिंसा को अपना ले तो यह एक आदर्श स्थिति होगी । इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए अहिंसा को अपने-आपसे शुरू करना होगा । किसी महापुरुष को जब मानव-समाज को कोई सीख देनी होती है तो वह सबसे पहले उस सीख को अपने जीवन में उतारता है । मनुष्य स्वभाव से ही नकलची है । वह सिर्फ कहने से कोई बात नहीं सीखता किन्तु किसी को कोई अच्छा या बुरा कार्य करते हुए देखता है तो स्वयं भी वैसा ही करने लगता है । अहिंसा घाटे का सौदा नहीं है । इसका प्रतिदान तुरंत नहीं तो कुछ देर-सबेर मिलता अवश्य है । यदि कोई मनुष्य मनसा, वाच, कर्मणा कोई ऐसा कार्य नहीं करता, जिससे किसी को शारीरिक या मानसिक आघात पहुँचे, तो इस बात का असर तुरंत अन्य व्यक्तियों और स्वयं पर पड़ता है । तलवारें और गोला बारूद जो कोई करीब 90 वर्ष तक नहीं कर सके, वही कार्य अहिंसा द्वारा महात्मा गाँधी ने चंद वर्षों में कर दिखाया । अहिंसा सर्वजन हिताय होती है इसलिए इसकी महत्ता स्वयं सिद्ध है ।

पिछली पोस्ट का जुडाव है (the link of previous post is ) -
https://steemit.com/@mehta/or-the-war-of-humanitarian-conservation-non-violence-part-1

The English translation of this post by Google language tool as below:

The question is how to make people general feel the violence or non-violence, so that they can survive. Humans do violence because they do not consider violence as violent. Or his faith in non-violence. It is written in our scriptures - 'Self-self-sovereignty: Existence: Pandit:' That is, the person who sees all living beings as their own soul, is a wise, wise man. According to this verse, if we see our own soul in other life, then there will be no violence and if we ever happen, we will take its pain very fast. This will gradually end violence.

Today's violence is very much contributing to Western civilization. The Western countries consider everything to be physical pleasures. The man only gives importance to himself there. The only purpose of their life is to live happily by mobilizing the modern features. With the advancement of mechanisms, all the countries of the world have come closer to our neighbor Sharmaji or Verma ji. Then the neighbors will not affect us? This is the reason that we are rapidly dying in the color of Western civilization.

People from western countries are non-vegetarian Why are people who get their food through violence only because they will not be violent and will accept the importance of non-violence? The result is that the people of Eastern countries, who are vegetarian, are also increasingly becoming carnivores in their contact. There is a saying - like eaten food, it is like mind. According to food, the mind of man becomes. When the quantity of meat in the food of the day is high or only the meat will be the food, then getting the flesh of any creature for the person will be as common as buying a salt bag from here. There is no difference between meat and grains for carnivores. Both are things to fill, but more important than food there is meat.

Gandhi and Mahavir say that without non-violence, human race can not be happy so non-violence is an essential part of life. But the Western people say our work can not work without violence Find out who can not work now. But who can walk, why do they follow the meat-eating imitation? The more profit you get from the non-vegetarian diet, there is much more loss. The non-vegetarian person's intelligence is a bit thicker than vegetarianism. He can not think deeply about anything. He also gets angry more, it becomes violent nature and in the old age, his or her limbs become looser and inactive, rather than vegetarian. These are scientific facts. Most of these, it seems to be the sin of creature violence.

Now think about what effect does eating meat have on humans? Man is constantly becoming a violent trend. Even the meat of other living beings is eating, now it is seeking human flesh. Just a few days ago a hotel owner was arrested. There the children's ossicles were recovered from one place. Children's meat was served to the customer at that hotel. This is not a matter of Europe, but it is a hotel in India.

The countries of the world that have grown enormously, have a sense of selfishness. This selfishness is the violence itself. Due to selfishness, today there is a huge competition in the collection of nuclear weapons in almost all countries of the world. In all countries there is a sense of insecurity about their existence. They think that the one who has the most nuclear weapons will be the most powerful and will be able to capture the possessions of other countries as well as protect their existence. There is no side to the sense of selfishness, so the use of nuclear weapons has been done on its neighboring country. The world has not forgotten the devastation of World War II, but this disaster has not taken any lesson from humans. If taken, then after the destruction of Hiroshima and Nagasaki, all these nuclear weapons should be put into the sea so that mankind can breathe peace with peace. But since then there has been an increase in the number of nuclear weapons, and now it seems that the world is sitting on a pile of gunpowder, which will ever explode and turn this world into a heap of ashes.

If all nations adopt non-violence then this will be an ideal situation. To achieve this ideal, non-violence must start with itself. When a great person has to teach something to human society, then he first starts that learning in his life. Humans are imitated by nature itself. He does not learn anything from just saying but seeing someone do any good or bad thing, he himself starts doing the same way. Non-violence loss is not a deal. Its redemption is not immediately, otherwise it may be very late. If a person does not do any such thing as mansa, vacha, karmana, so that anyone can get physical or mental trauma, then this effect immediately falls on other persons and themselves. The Swaraj and ammunition which no one could have been able to do for nearly 90 years, Mahatma Gandhi showed nonviolence in a few years. Non-violence is a generous one, so its importance is self-proven.

अहिंसा Steeming

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Bahut khub mehta saab.

Aap bharat varsh ke liye prerna ka strot isiliye me apke vicharo ko naman karta hun.

Dhanya hai vo guru jiske aap shishya hai

भाइयों भारत में एक परेशानी है ,यहाँ पर भेड़ चाल बहुत है मतलब एक इंसान कुछ गलत काम शुरू करदे फिर तो गलत काम करने वालों की लाइन लग जाती है।
एक इंसान हिंसा शुरू करदे फिर सारी भीड़ आ जाती है हिंसा करने।

ये सब कुछ हम लोगो के आचरण में और नैतिकता से ही हो सकता है, जब तक हम लोग सफलता का सही मतलब नहीं जानेंगे और हम सिर्फ पैसा कमाने को ही सफलता मानेंगे तब तक तो कभी नहीं होगा?

Everyone has the freedom to discover the truth, that is why a fine look of Indian spirituality has adopted non-violence from the very beginning. Non-violence makes politics politically sensitive. Non-violence reorganizes the structure of society.

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@mehta
हिंसा के माध्यम से आप हत्या कर सकते हैं, लेकिन आप नफरत की हत्या नहीं करते हैं। वास्तव में, हिंसा केवल नफरत बढ़।जाती है।हिंसा के माध्यम से आप नफरत की हत्या कर सकते हैं, लेकिन आप नफरत की हत्या नहीं करते हैं। वास्तव में, हिंसा केवल नफरत बढ़ जाती है। तो यह जाता है। हिंसा के लिए हिंसा को वापस करने से हिंसा बढ़ जाती है, जो सितारों से पहले से ही रात में गहरा अंधेरा जोड़ती है। अंधेरा अंधेरा नहीं चला सकता: केवल प्रकाश ही ऐसा कर सकता है। घृणा नफरत नहीं कर सकती: केवल प्यार ही ऐसा कर सकता है तो यह जाता है। हिंसा के लिए हिंसा को वापस करने से हिंसा बढ़ जाती है, जो सितारों से पहले से ही रात में गहरा अंधेरा जोड़ती है। अंधेरा अंधेरा नहीं चला सकता: केवल प्रकाश ही ऐसा कर सकता है। घृणा नफरत नहीं कर सकती: केवल प्यार ही ऐसा कर सकता है

अहिंसा वही व्यक्ति कर सकता है जो धर्मी है। धर्म का पूरी श्रद्धा से पालन करता है।
शास्त्रों में भी लिखा है-
अहिंसा परमो धर्मा
अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है, इसके अलावा जो कुछ भी है वो सब हिंसा है।
लेकिन आज के समाज में हिंसा से कोई भी अछूता नहीं है, सभी पर हिंसा हावी है चाहे उसका कोई भी रूप हो।

बहुत अछा पोस्ट आप्का

Great man iske Bina India me note nahi chalta

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