अध्यात्म साधना में बाधक - अज्ञान (अंतिम भाग # २) | Inhibition of Spirituality - Ignorance (Final Part # 2)
अध्यात्म साधना में बाधक - अज्ञान (अंतिम भाग # २) | Inhibition of Spirituality - Ignorance (Final Part # 2)
कल की ज्ञान-अज्ञान की बातों से आगे बढ़ते है और इसे थोडा विस्तृत समझने का प्रयत्न करते है ।
इतना ही नहीं, जब तक आत्मा के शुद्ध स्वरूप का जीव को निश्चय नहीं होता अर्थात् स्वरूप की वास्तविक प्रतीति नहीं होती तब तक, यह आत्मनिश्चय पूर्ण रूप से दृढ़ भी होना चाहिए अन्यथा प्राणी मिश्र मोह में फंसकर मध्य में ही लटकता रहेगा । उसे आगे बढ़ने का मार्ग और शक्ति प्राप्त नहीं हो सकेगी । मनुष्य को आगे बढ़ने से रोकने में अहंकार भी बहुत बड़ा हिस्सा अदा करता है । यह अहंकार तप का भी बहुत बड़ा शत्रु है । जप का तो यह सत्यानाश ही कर देता है । अहंकारी व्यक्ति तत्त्व चर्चा में ही अटककर रह जाता है, प्रत्याख्यान की ओर नहीं बढ़ पाता ।
अत: उस सारी अटकन, भटकन और लटकन से बचकर ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह संसार दे समस्त विषयों को दुःख रूप समझकर इनसे बचकर चले ।
ज्ञान तभी सच्चा ज्ञान कहला सकता है जबकि उसमें सब जीवों का दुःख खटके । संसार के विषय भयंकर लगें । ह्रदय में संवेग का उदय हो । वैराग्य सहज हो जाए । जब ऐसी स्थिति बने तभी समझना चाहिए कि हमारा ज्ञान सम्यगज्ञान है ।
मोह का भ्रम दूर होने पर ही विवेक होता है और विवेक का उदय होने पर ही ‘आत्मरति’ उत्पन्न होती है । ऐसा होने पर सभी ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाते हैं । भले ही लौकिक दृष्टि से वह असत्यवचन योग ही क्यों न हो ।
जिस प्रकार ‘एक’ के बिना सारे शून्य व्यर्थ होते है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सभी ज्ञान अज्ञान है । जिस प्रकार सुहाग चिन्ह के बिना पतिव्रता की शोभा नहीं अथवा नाक बिना श्रृंगार की शोभा नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञानावरणीय कर्म का ऊँचें से ऊँचा क्षमोपशम भी अज्ञान में ही सम्मिलित है ।
ज्ञान, विज्ञान, अज्ञान, मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान का मर्म समझकर उनका यथार्थ उपयोग किया जा सकता है । इसके बिना आत्मार्थ और परमार्थ की प्रगति नहीं हो सकती । जो व्यक्ति इस मर्म को समझे बिना प्रवृति करेगा उसकी सारी प्रवृत्तियां स्वार्थ और परार्थ के बीच में भटकती रहेंगी ।
अर्थात् पाप और आश्रव ही त्यागने योग्य हैं, पुण्य नहीं । पुण्य तो मोक्ष मिलते ही स्वयमेव छूट जाता है । उसे पहले छोड़ देना समुंद्र के बीच नौका को डुबो देना है । पुण्य छोड़ने वाला पाप ही तो करेगा ? घाव के अच्छे होने पर जो काली-काली चमड़ी आ जाती है वह तो स्वस्थता का चिन्ह है, उसको हाथ से नहीं निकालना चाहिए । घाव भरने पर वह चमड़ी स्वयं छूट जाएगी । औषधि स्वयं स्वस्थता नहीं है, किन्तु वह स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है । इसी प्रकार पुण्य जीव का स्वभाव नहीं है, पर इसे स्वभाव में सहायक तत्त्व माना जाता है । इसके बिना स्वभाव धर्म व्यक्त कैसे होगा । अत: पुण्य स्वभाव न होते हुए भी प्रभाव के लिए अनिवार्य है ।
इसी दृष्टि से प्राप्त किया गया सब तत्त्वों का विवेक ही अज्ञान को ज्ञान बताता है तथा विज्ञान मिथ्याज्ञान को दूर कर सम्यग्ज्ञान की प्रतिभा व्यक्त करते हुए धीरे-धीरे केवलज्ञान तक पहुंच जाता है । यही हमारा अन्तिम और चरम लक्ष्य है जो सीधा सिद्धि तक पहुंचा देता है ।
पिछली पोस्ट का लिंक है -
The English language translation by the help of Google tools as below:
Ages of ignorance go ahead with the things of ignorance and try to understand it a little bit wide.
Not only this, unless the soul of the pure nature of the soul is not resolved, that is, the real realization of the form, this self-determination must be fully firm or otherwise the creature will be trapped in allure and hanging in the middle itself. He will not get the path and strength to move forward. The ego also makes a very big portion in preventing man from moving ahead. This ego is also a great enemy of penance. Just chanting it annihilates. The arrogant person stays in the discussion only, and does not move towards repudiation.
Therefore, by avoiding all the speculation, wandering and pendant, the wise man should give up the world and avoid all these things by feeling sad.
Knowledge can be called true knowledge only when it saddens the life of all creatures. The world's fierce fantasies. The emergence of momentum in the heart May be easy to become quiet. When such a situation arises then we should understand that our knowledge is samyagyan.
The illusion of attachment only comes after discrimination and 'self-sacrifice' arises only after the emergence of discrimination. When this happens, all knowledge becomes synonymous. Regardless of the temporal vision, that is why it is unrealistic.
Just as without 'one' all zeros are in vain, so without knowledge, all knowledge is ignorance. Just as without the sign of patriarchy, neither the beauty of the nose nor the beauty of the nose, in the same way, without the help of comprehension of knowledgeable work, higher height than the height of knowledge is also included in ignorance.
Understanding the wisdom of knowledge, science, ignorance, mathya, and samogagni can be used in real terms. Without it the progress of selflessness and Paramartha can not be attained. All those tendencies, which will tend to deviate without understanding, will continue to wander between selfish and altruism.
That is, sin and ashes are only deserving to be left, not virtuous. Virtue is automatically missed when you get salvation. To leave the boat before it is to sink the boat between the sea. Only the person leaving sin will do the same? When the wound is good, the black-and-white skin comes in. It is a sign of health, it should not be removed by hand. If he wounds he will lose the skin himself. Drug itself is not healthy, but it is necessary for health. Similarly, there is no nature of a virtuous creature, but it is considered auspicious in nature. Without it, nature will express how religion is. Therefore, without virtue of nature, it is compulsory for the effect.
The discretion of all the elements received from this view only tells the knowledge of ignorance and by eliminating science fiction, expressing the genius of samyagyan, it gradually reaches up to the knowledge. This is our ultimate and ultimate goal, which leads to direct accomplishment.
Yar ye jo tmhary blog par badcontent ka msg a rhaa hay kesay khatam hoga?
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@kaleem345
ये तो खुद को ही @badcontent कह रहा है इसमें हम क्या करें. जब ये ही @badcontent है.
आप तो अपना काम करते रहो, कौन क्या कह रहा है, क्यों कह रहा है, भूल जाओ. हमारे यहाँ एक कहावत है "कुत्ते भोंकते रहते है और हाथी चलते रहते है."
जब तक आप गलत नहीं हो तो किसी से क्यों डरना चाहे वो @badcontent हो या फिर @buildawhale या फिर कोई और नाम हो. हमारे लिए तो एक ही बात है जैसे भगवान, ईश्वर, अल्लाह, देवता, वाहेगुरु, जीसस कुछ भी कहो बात तो एक ही है. वैसे ही ये एक आदमी के अलग-अलग नाम है, पर चीज एक ही है और गहराई में जाऊगे तो और नाम मिल जाएँगे.
Magar hum blacklisted ho gaye hen? Baray wahel par bid nii laga sakty
अध्यात्म एक बहुत ही एकमात्र और पवित्र तत्व है। कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य रूपी आत्मा जब कभी भी अध्यात्म के द्वारा परमात्मा में लीन होने का प्रयास करती है तो हमारा चित्त दुनिया के नाना प्रकार के कामों के बंधन में फंसता हुआ प्रतीत होता है जिससे हमारा अंतर्मन परमात्मा में ध्यान नहीं लगा पाता।
और मेरे अभिप्राय में तो ये सम्पूर्ण जगत ही अज्ञान है एक छण भंगुर सुख है जिसके लालच में हम परमात्मा की स्थायी प्राप्ति के सुख से दूर हो रहे हैं। उस परमात्मा की प्राप्ति इस अज्ञान के साथ तो कभी नहीं की जा सकती है।
और यही अज्ञान काल का जाल है जिसमे हम सभी आत्मा तत्व फंसते जा रहे हैं।
हैलो मेहता जी @mehta ji
में पश्चिम बंगाल से हूँ, आपके हिन्दि भाषा में पोस्ट देखता हूँ तो मुझे भी पढ़ने में हिन्दी शिखने में मद्त मिलती हैं, जैसे chbartist की तारा में आपका भी फैन बन गया हूं।
आपके पोस्ट अच्छी हेल्प मिलता हैं मुझे।।।।।।
आपका हिंदी में पोस्ट लिखने का तरीका बहुत ही अच्छा है. इससे हमारी मातृभाषा के आगे बढ़ने में मदद मिलेगी
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Right
@mehta
जिस प्रकार अच्छी तरह जलती हुई आग ईंधन को भस्म कर देती है,
उसी तरह ज्ञानाग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है।
जिसने आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उस पर काम और लोभ का विष नहीं चढ़ता।
अध्यातम हमे हमारी जिंदगी का असली मकसद बताता है,ये हमें भौतिक सुखों से दूर और अलौकिक शक्ति के पास जे जाता है .
Nice post mehta ji.
You really help us spiritually
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@mehta, सात्विक ज्ञान का कोई मोल नहीं है जी !
Actually It can be traced to see that your content has been quite good since the beginning.
Jaise aj Spanish or French Indian school m sikhayi ja rhi h vaise humari language ko b age bdhne ki jaroort h. @mehta Ji ap bht logo ki inspiration ho K apni mother tongue m likh b apne itna acha kaam kiya 👏