02 Life Story of Abhinavagupta (Hindi)
श्री अभिनवगुप्त एक महान दार्शनिक
जीवन परिचय
कश्मीर के सुरम्य एवं पवित्र प्रदेश श्रीनगर में एक महान सिद्ध, महान योगी एवं महान दार्शनिक श्री अभिनवगुप्त का जन्म ९५०-९७५ के मध्य हुआ। वे आदि शक्ति उमा के परम भक्त थे। शिव और शक्ति के मिलन की एकता में स्वयं भी एक हो चुके थे। उनके गुरु का नाम था शम्भुनाथ, जिन्होंने अपने शिष्य को । ज्ञान व विद्या का वरदान दे कर, अपनी कृपा द्वारा उच्चतम स्थिति प्रदान की थी।
प्रारम्भिक शिक्षा के उपरान्त श्री अभिनवगुप्त एक लम्बी यात्रा पर निकल गये और उन्होंने लगभग बीस शिक्षकों के समीप रहकर अनेक विद्याओं में निपुणता प्राप्त की, यथा, साहित्य, शैवमत इत्यादि दार्शनिक सिद्धान्तों का एवं अन्य धर्मों का अध्ययन व अनुशीलन किया। | वे अपने शिक्षक भास्कर के विशेष ऋणी थे जिन्होंने उन्हें आदि स्पन्द का रहस्य बताया। स्पन्द ही सृष्टि के सृजन का आदि कारण है। चिति के सागर की एक लहर है जिसके बिना कोई चैतन्य नहीं। वह प्रकाश की एक किरण है, आदि नाद 'ॐ' है।
लक्ष्मणगुप्त ने प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त का ज्ञान दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार एक व्यक्ति की प्रकृति वही है जो समष्टि अर्थात् परम सत्य की है। इस प्रक्रिया का आरम्भ तब होता है जब एक शिष्य को अपनी सच्ची प्रकृति का स्मरण हो जाता है। उस स्मरण का कारण प्रायः गुरुकृपा होती है, जो गुरु की दृष्टि, उनके शब्द, उनके स्पर्श या उनके संकल्प के द्वारा शिष्य के हृदय में प्रवेश कर जाती है। इसे शक्तिपात के नाम से पुकारा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब एक शिष्य को शिव के साथ अपनी एकता का स्मरण हो जाता है तो वह चाहे सुख हो, दुःख हो, हर स्थिति में उस एकता को बनाये रखता है। आध्यात्मिक अभ्यासों द्वारा वह शनैः-शनैः पूर्ण आत्मज्ञान की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
श्री अभिनवगुप्त को ज्ञान प्राप्ति की अतीव लालसा थी एवं स्वानुभव पाने की बड़ी उत्कंठा थी। वह इच्छा पूर्ण हुई जब वे जालन्धर में गुरु शम्भुनाथ से मिले। शम्भुनाथ ने उन्हें शक्तिपात दीक्षा दी, ध्यान की प्रक्रिया का सम्पूर्ण ज्ञान दिया और कृपा के फलस्वरूप जगनेवाली कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव दिया। उस महान अनुभव के बाद, अन्ततः श्री अभिनवगुप्त कुण्डलिनी रहस्य. ध्यान एवं शक्तिपात के प्रमुख ज्ञाता के रूप में प्रसिद्ध होने लगे।
श्री अभिनवगुप्त के दर्शन का केन्द्र बिन्दु है-शक्तिपात दीक्षा। अपने महान ग्रन्थ ‘तन्त्रालोक' में उन्होंने शक्ति के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि दीक्षा की प्रक्रिया में शक्ति अवतरित होती है और जिज्ञासु के हृदय में प्रवेश कर जाती है। वह केवल उतरती ही नहीं है वरन्। हमारे चक्रों में प्रस्फुटित होती है।
विभिन्न शिष्यों की सामर्थ्य के अनुसार ही शक्ति का अविर्भाव भी कम या अधिक बलशाली रूप में प्रकट होता है। शक्ति तो एक-सी ही होती है। किन्तु शिष्य जितना ग्रहण कर पाता है शक्ति उतना ही अपने को प्रकट करती है।
श्री अभिनवगुप्त कहते है, “जो पूरी तरह श्रीगुरु की शिक्षाओं पर चलते हैं। वे तीव्र शक्तिपात पाते ही शिव हो जाते हैं अन्य लोग एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए, अभ्यास करते हुए, उस परम तत्त्व तक पहुँचते हैं और शिवरूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जिनकी साधना अधूरी रह जाती है उन्हें ‘योगभ्रष्ट' कहा जाता है। मृत्यु के उपरान्त वह महान सुख भोगते हैं और धीरे-धीरे उन्नति करते हुए, अगले जन्म में या किसी जन्म में मुक्त हो जाते हैं।”
एक महत्त्वपूर्ण बात स्मरणीय है कि एक बार जिज्ञासु को शक्तिपात मिल जाता है तो आत्मज्ञान पाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। श्री अभिनवगुप्त कहते हैं, “जिस प्रकार से स्वच्छ दर्पण में मुख भी स्पष्ट ही दीखता है उसी प्रकार शिव के शक्तिपात द्वारा जब मन शुद्ध हो चुका होता है तो आत्मा अपने को स्पष्ट प्रकट कर देती है।” शक्तिपात शिव के द्वारा दिया गया एक उपहार है। जिसे गुरु उदारतावश हमें देते हैं और एक करुणाशील माँ की भाँति उसका पालन-पोषण करते हैं। श्री अभिनवगुप्त कहते हैं कि दीक्षा के दो पक्ष हैं। 'दी अर्थात् देना, ‘क्षा' अर्थात् नष्ट करना। श्री गुरु कृपा देते हैं और संस्कार को नष्ट कर देते हैं। हमारी सत्ता के गहन अन्तरतम में जो छिपा है श्रीगुरु उसे बाहर ले आते हैं और इस प्रकार हमारे हृदयस्थ ज्ञान और प्रेम को उजागर करते हैं।
श्रीगुरु में दो विशेष गुण होते हैं-ज्ञान एवं कृपा। साथ ही उनमें अपार करुणा होती है और शिष्य को शक्तिपात का वरदान देने के बाद भी वे शक्ति का नियमन करते हैं और जब तक शिष्य पूर्ण नहीं हो जाता तब तक उसका उत्तरदायित्व सँभालते हैं।
श्री अभिनवगुप्त ने संन्यासी का जीवन बिताया। उन्हें श्री अभिनवगुप्त का नाम मिला अर्थात् वह सतत नये हैं गुप्त भी हैं क्योंकि वे ब्रह्म की सतत नवीन प्रकृति के मूर्तिमान रूप थे, साथ ही वे अपनी उस महानता को छिपाये भी रखते थे।
११वीं शताद्वी के आरम्भ में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। इस विषय में एक कथा प्रचलित है कि उन्होंने एक गुहा में प्रवेश किया और वे वहाँ सदा के लिए समाधिस्थ हो गये। वह गुहा श्रीनगर के निकट गुलमर्ग पर जानेवाले मार्ग पर स्थित है। यह गुहा प्रवेश गहन अर्थ रखता है- श्री अभिनवगुप्त वास्तव में अपने सभी भक्तों की हृदय-गुहा में प्रवेश कर गये हैं।