पर्यावरण के विध्वंस से उजड़ती ये दुनिया -4 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 18]
गाय के पाद से हो रही ये दुनिया बर्बाद!
आज गायों के पादने से विसर्जित गैस, एटम बम्ब से भी अधिक विनाशकारी सिद्ध हो रही है। मवेशियों को पालने के फलस्वरूप बड़ी मात्रा में मिथेन गैस उत्पन्न होती है। यह उनकी सामान्य पाचन क्रिया का प्रतिफल है। उनके पाचन तंत्र में भोजन को पचाने के लिए वहाँ उपलब्ध सूक्ष्म कीटाणु उसका फर्मेंटेशन करते हैं तो यह गैस एक प्रति-उत्पाद के रूप में बनती है। जब करोड़ों-अरबों की तादाद में पशु-पालन किया जाने लगा तो उससे उत्पन्न होने वाली मिथेन गैस भी हद से अधिक वातावरण में विसर्जित होने लगी। यही नहीं, उनके मल-मूत्र से; और उनके खाद्य-पदार्थों की खेती में काम में लिए जाने वाले रासायनिक नाइट्रोजिनस उर्वरक से निस्तारित होने वाली नाइट्रस-ऑक्साईड गैस भी अत्यधिक मात्रा में वायुमंडल में घुलने लग गई।
आज किसी भी क्षण दुनिया में जीवित गायों की संख्या डेढ़ सौ करोड़ के लगभग है। औसतन 600 किलो वजनी ये गायें खाती भी बहुत हैं। और जो भी खाती है, उसे पचाना भी पड़ता है। प्राकृतिक घास-फूस खाने वाली गायों को कम पौष्टिक चारा और सोयाबीन व मक्का जैसे अन्न खिलाये जाने लगे हैं, जो उतनी आसानी से नहीं पच पाते। यह भी अधिक गैस विसर्जित होने में एक प्रमुख कारण है। माइकल पोलन अपनी पुस्तक “द ओमनीवोर’स डाईलेम्मा में बताते हैं कि हम मवेशियों को अतिशीघ्र बड़ा और मोटा करने के लिए मक्का खिलाते हैं, जिसके उत्पादन और आपूर्ति में कल्पनातीत जीवाश्म ईंधन का उपयोग होता है। परन्तु ये गायें उस मक्का को पचा नहीं पाती है। अतः फार्म के स्वामी गाय द्वारा मक्के को पचाने के लिए कई एंटीबायोटिक्स के इंजेक्शन देते हैं। इस प्रकार की खुराक पर गायें महज 150 दिन ही जिन्दा रह सकती है, उसके बाद उनका रूमेन (प्रथम आमाशय) अत्यधिक एसिडिटी के कारण ख़राब हो जाता है, क्योंकि वह प्राकृतिक रूप से हरी घास को पचाने के लिए बना है, न की मक्का को।
वैसे तथ्यात्मक दृष्टि से बात करें तो गाय के पादने से अधिक मिथेन गैस उसकी डकारों और गोबर से उत्सर्जित होती है, फिर भी उसके पाद को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। एक गाय सालाना 4,000 किलो कार्बन डाईऑक्साइड के समकक्ष ग्रीन-हॉउस गैस का उत्सर्जन करती है। यह एक कार द्वारा एक साल में किये जाने वाले औसत उत्सर्जन से डेढ़ गुना अधिक है। प्रत्येक गाय एक दिन में तीन सौ से पाँच सौ लीटर मिथेन गैस का उत्सर्जन औसतन करती है। तो कल्पना कीजिये कि डेढ़ सौ करोड़ गायें कितनी ग्रीन-हॉउस गैसों का उत्सर्जन करेगी?
केवल मिथेन के उत्पादन पर नियंत्रण करके ही हम तुरंत सकारात्मक परिणाम देख सकते हैं। नहीं तो, पशुओं की बढ़ती खेती के जरिये 565 गीगाटन की ग्रीन-हॉउस गैसों की सीमा तो हम 2030 में ही लांघ जायेंगे! संयुक्त राष्ट्र ने सन् 2010 में “पशुधन के मिथेन उत्सर्जन पर वैश्विक कर” प्रस्तावित किया था, जो मिडिया में “पादने पर टैक्स” के नाम से प्रचलित हुआ था। तीन साल बाद ऐसा ही एक सरचार्ज यू.के. की सरकार ने भी लागू करने का प्रयत्न किया था। हालाँकि ये सभी प्रस्ताव तब पारित नहीं हो पाए थे, तथापि यह अभी भी गहन विचार के विषय हैं। क्योंकि इन गैसों के हमारे वातावरण में विसर्जन की दर दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
समस्या पशु-उद्योग की वृद्धि दर की रफ़्तार है, जो कि थमने का नाम ही नहीं ले रही। इसके दो प्रमुख कारण है। एक तो उपभोक्ताओं की बढ़ती हुई संख्या और दूसरा प्रति उपभोक्ता उपभोग की बढ़ती खपत। पिछले 25 वर्षो में हमारी जनसंख्या में लगभग दो अरब लोग और जुड़ गये। दूसरे, बढ़ते हुए भौतिकतावाद से हमारे औसत जीवन-स्तर और रहन-सहन के ढ़ंग में काफी प्रगति हुई है। आंकड़े बताते हैं कि पशु-उत्पादों का सेवन हमारी सम्पन्नता से जुड़ा हुआ है। अधिकांश लोग माँस खाना और खिलाना अपनी विलासिता और सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक मानते हैं। अतः सम्पन्नता के साथ प्रति व्यक्ति पशु-उत्पादों की खपत भी बढ़ रही है। एशिया में 1961 की अपेक्षा आज कुल माँस की खपत 30 गुना बढ़ गई है। जबकि यूरोप में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। विश्व का कुल माँस उत्पादन 1961 में 7 करोड़ टन प्रति वर्ष था जो 2009 में बढ़कर 28 करोड़ टन प्रतिवर्ष हो गया। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि यह 2050 में बढ़ कर 46 करोड़ टन प्रतिवर्ष हो जायेगा। परंतु क्या हमारी दुनिया का वातावरण इतने स्तर पर पशु-उत्पादन का दुष्प्रभाव झेलने में समर्थ है? कई वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि ऐसे ही हालत रहे तो 2040 तक सम्पूर्ण मानव प्रजाति ही विलुप्त हो जायेगी!
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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी