दूध को मिला अमृत का दर्ज़ा! [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, भाग – 3, प्रविष्टि – 14]
“आदमी ही एक ऐसा जानवर है जो अपनी शैशवावस्था से लेकर मरते दम तक दूध और दूध से बने उत्पादों का सेवन करता है। परंतु इतना अमृत गटकने के बाद भी वह कभी अमर नहीं हो पाया!”
पर क्या दूध ज़रूरी नहीं है?
कतई नहीं। श्वेत-क्रांति के फलस्वरूप आई दूध की बाढ़ को थामने के लिए इसकी खपत बढ़ाना आवश्यक हो गया था। डेयरी-उद्योगपतियों ने अतिरिक्त दूध को खपाने के लिए दूध-पाउडर, मिल्क-मेड सरीखे ब्राण्ड, घी, मक्खन, छाछ, दही की लस्सी, श्रीखंड, विभिन्न फ्लेवरों वाले दूध, आइस्क्रीम, पनीर, तरह-तरह की मिठइयां, अनेक पकवानों को बनाने की मुफ्त विधियां, महीनों तक खराब न होने वाले दूध के टेट्रापैक, इत्यादि उत्पाद बाज़ार में उतारे। लुभावने विज्ञापनों और आकर्षक विपणन स्कीमों के माध्यम से आपके स्थानीय ग्वाले का धंधा भी छिन लिया और पैकेज्ड उत्पाद खरीदने की एक नयी बाजारू-संस्कृति को जन्म दिया। चिकित्सकों और आहार-विशेषज्ञों को अपने पक्ष में कर दूध को एक सम्पूर्ण पौष्टिक एवं आवश्यक आहार बताया। यही नहीं, सरकार के साथ मिलकर इसकी कमी को ही बच्चों के कुपोषण का ज़िम्मेदार ठहराया और विभिन्न सरकारी-स्कीमों के माध्यम से अपनी बिक्री बढ़ाई।
क्या कभी आपने दूध और अण्डे के अलावा किसी अन्य अनब्रांडेड जिंसों के विज्ञापन देखें हैं? क्यों कभी नारियल के पानी, जैविक हरी सब्जियों या ताजे स्वादिष्ट फलों के विज्ञापन सरकारें नहीं करती? टीवी, अखबार के पूरे के पूरे पृष्ठ और शहरों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स आज भी ये चीखते हुए नहीं थकते कि “दूध - एक सम्पूर्ण पोषण” या “संडे हो या मंडे, रोज़ खाओ अण्डे”! सरकार हो या मीडिया, उद्योगपतियों ने अपनी दौलत के बल पर सबको अपने पक्ष में कर जन-मानसिकता तक बदलने का प्रयत्न किया है। जब हाल ही में एक राज्य सरकार ने अपने राज्य में स्कूली-बच्चों को दिए जाने वाले दोपहर के भोजन मिड-डे मिल के मीनू में से अण्डे हटा दिए तो पूरे देश के मीडिया में इस फैसले के खिलाफ आवाज़ उठने लग गई!
अंग्रेजों के भारत में आने के पहले हमारे देश में न तो चाय का चलन था और न ही चमड़े के जूतों का। दूध की पहुँच भी बहुत सीमित थी। फिर भी सब स्वस्थ जीवन जीते थे। बहुत ही संपन्न परिवार ही थोड़ा बहुत दूध खरीद पाते थे। भागवत में आए श्रीकृष्ण की बाल-लीला के विवरण से पता चलता है कि एक संपन्न परिवार में पलने वाले श्रीकृष्ण को भी अपना शौक पूरा करने के लिए मक्खन चुराना पड़ता था। सैंकड़ों गायें होने के बावजूद मक्खन की उपलब्धता सहज नहीं थी। हर तबके के लोगों को दूध उपलब्ध नहीं था। बल्कि दूध का उपयोग पीने के बजाय घी बनाने में अधिक होता था। घी को दीपक, दिये और दवा आदि कामों में लिया जाता था। उनको खाना तो, विशेषकर मक्खन और घी खाना तो विलासिता के प्रतीक थे, आवश्यक खाद्य में उनकी गिनती नहीं होती थी। घी की विशिष्टता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी कई घरों में भोज पर किसी विशिष्ट अतिथि के आगमन पर ही घी से चुपड़ी रोटियाँ, घी से लथपथ चावल और घी में बनाया हलवा या ऐसे ही अन्य पकवान परोसने की परंपरा है।
मानव के समग्र विकास के लिए किसी भी पशु का दूध एक अनावश्यक मद है। लाखों-करोड़ों वर्षों से हम गाय के दूध के उत्पादों के बिना ही अपना संतुलित भोजन करते आये हैं। परंतु इस औद्योगिकता के युग में हम इसके व्यावसायीकरण होने से धोखा खा गए हैं। हम सब को इस डेयरी उद्योग ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत गुमराह कर दिया है। इसके फलस्वरूप हम दूध पीने की बेवकूफी को अपनी समझदारी का प्रतीक मानने लगे हैं।
अच्छा, आप ही बताइये, इस दुनिया में ऐसा कौनसा स्तनपायी जीव है जो किसी अन्य प्रजाति के स्तनपायी जीव का दूध पीता है? क्या कभी गाय के बछड़े को हट्टा-कट्टा और शीघ्र बड़ा होने के लिए हथिनी या गेंडे का दूध पीते देखा है? या बिल्ली के बच्चों को सिंहनी का दूध पीते देखा है? क्या कुत्ते के पिल्लै सूअर का दूध पी सकते हैं? ये सब बातें निहायत ही अप्राकृतिक है। केवल इंसान ही समस्त विश्व में एक ऐसी प्रजाति है जो किसी भी प्रजाति का दूध निसंकोच गटक जाती है! चाहे वो गाय हो या भैंस, ऊँटनी हो या जिराफ़, भेड़ हो या बकरी, यॉक हो या लामा, बारहसिंगा हो या फिर कोई भी जीव, वह किसी भी प्रजाति का दूध पीने से बाज़ नहीं आता। परंतु ये बात समझ लेनी आवश्यक है कि दूध उसकी मूलभूत आवश्यकता नहीं बल्कि महज उसका शौक है।
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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी