खून और शोषण का असली कारण: प्रजातिवाद - 2 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 19]steemCreated with Sketch.

in LAKSHMI4 years ago (edited)

“मेरी धार्मिक मान्यता इससे भिन्न है!”

अच्छी बात है। वैसे कोई भी धार्मिक मान्यता बेवजह हिंसा की इजाजत नहीं देती। लेकिन यहाँ हम किसी धर्म-विशेष की बात नहीं कर रहे। चाहे आप किसी भी धर्म के अनुयायी हो या बेशक नास्तिक हो, इससे इस बात का कोई लेना-देना नहीं हैं कि आप निरीह जानवरों का शोषण करें। यह तो सर्वप्रथम नैतिकता का मामला है। और यदि आपका चारित्र नैतिक नहीं हैं तो किसी भी धर्म या संप्रदाय की बात ही बेमानी है।

किसी भी जानवर के जीवन में आपका अतिक्रमण उसकी स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन करता है। शोषण और हत्या तो उसके जीने के मौलिक हक को ही छिन लेता है! क्या हक है आपको किसी की जान लेने का? इस उक्ति पर तनिक गहराई से विचार करके देखिये, “आपका अपनी मुट्ठी को लहराने का अधिकार वहीँ समाप्त हो जाता है जहाँ से मेरी नाक की सीमा शुरू होती है।” यानि कि मेरी नाक पर वार करने का आपका कोई हक़ नहीं है। आप किसी के भी जीवन से कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकते, ये आपका नैतिक दायित्व है। पूर्णविराम!

“पर दूध और माँस तो मेरे जीवन के लिए अनिवार्य हैं।”

ये भ्रान्ति व्यावसायिकता की देन है। इसमें लेश मात्र भी सच्चाई नहीं है। पौधों पर आधारित संतुलित आहार ग्रहण कर कोई भी व्यक्ति बिना किसी दूध, अण्डे व माँस के पूर्ण स्वस्थ और खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकता है। ये निर्विवादित सत्य है। परंतु खून और शोषण का व्यवसाय करने वाले अपना स्वार्थ साधने के लिए अपने धन के बल पर समाज में गलत धारणाओं को फैलाते रहते हैं।

पौधों में वे सभी पोषक-तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जो आप दूध, माँस या अंडा खा कर प्राप्त करते हैं और ये अपेक्षाकृत काफी सस्ते भी हैं। आखिर पशुओं को ये सारे प्रोटीन, कैल्सियम, विटामिन आदि भी पौधों से ही तो मिलते हैं, न! पशुओं के जरिये इनका अप्रत्यक्ष भक्षण करने के बजाय इन्हें प्रत्यक्ष रूप से पौधों से ही क्यों न प्राप्त कर लिया जाये? आप भी खुश और सभी प्राणी भी। आपको बेहतर स्वास्थ्य के साथ नैतिकतापूर्ण चरित्र मुफ्त में मिलेगा।

द न्यू इंग्लेंड जर्नल ऑफ़ मेडिसिन के हाल में जारी शोध पत्रों से पता चला है कि जब हम माँस भक्षण करते हैं तो उसमें मौजूद कार्निटाइन हमारे अमाशय में मौजूद बैक्टेरिया की मदद से ट्राईमिथाइलअमाइन बन जाता है जिसे हमारा यकृत टी.एम.ए.ओ. (ट्राईमिथाइलअमाइन-एन-ऑक्साइड) में तब्दील कर देता है। टी.एम.ए.ओ. हमारे लिए एक खतरनाक रसायन है, जो रक्त में कोलेस्ट्रोल जमा करने का प्रवर्तक है एवं ह्रदय-घात और मृत्यु का कारण है। टी.एम.ए.ओ. कोलेस्ट्रोल के उत्सर्ग के द्वार बंद कर देता है और यह प्रोस्टेट-केंसर का भी उत्तरदायी है।

चिकन, मछली, अंडे, दूध और यहाँ तक कि वनस्पति में भी कोलीन (Choline) नामक पदार्थ पाया जाता है जो बहुत कुछ कार्निटाइन जैसा ही होता है और आमाशय में मौजूद बैक्टेरिया इसको भी टी.एम.ए.ओ. में तब्दील कर देता है। हालाँकि कार्निटाइन की हमारे शरीर को कोई आवश्यकता नहीं होती परन्तु कोलीन की तो आवश्यकता होती है। राहत की बात यह है कि जो केवल वनस्पति आधारित भोजन करते हैं, उनके आमाशय में बैक्टेरियों का दूसरा वर्ग स्थापित हो जाता है, जो कोलीन को टी.एम.ए.ओ. में तब्दील नहीं करता।

ऐसे ही अनेक वैज्ञानिक शोध पत्र माँस और दूध जैसे पशु उत्पादों को मानव के लिए न केवल निरर्थक और व्यर्थ साबित करते हैं बल्कि इन्हें हमारे स्वास्थ्य के लिए अत्यंत खतरनाक भी बताते हैं। अतः इन्हें त्यागना हरेक के स्वस्थ जीवन के लिए अनिवार्य है।

“लेकिन मनुष्य तो आदि-काल से माँसाहारी है!”

ये एक अन्य प्रकार का झूठ है, एक वैज्ञानिक झूठ। जी हाँ, ये कोई तथ्य नहीं बल्कि कुछ वैज्ञानिकों का मत था, जो कभी भी सत्य साबित नहीं हो पाया। मनुष्य आदि-काल से स्वभाविक रूप से निरवद्याहारी (शुद्धतम शाकाहारी) था और आज भी है। मनुष्य के दांतों की बनावट भी उसके निरवद्याहारी होने को स्पष्ट करती है। उसकी छोटी-आंत की लम्बाई इसका एक और पुख्ता प्रमाण है। एक माँसाहारी प्राणी की आँतों की लम्बाई बहुत कम होती है जिससे उसका पाचन-चक्र छोटा होता है और माँस अधिक समय तक आमाशय में नहीं टिक पाता। इसके उलट हमारा पाचन-चक्र बहुत लम्बा है (24 से 48 घंटे का)। इतने लम्बे समय तक माँस शरीर में रहकर सड़ने लगता है और कई प्रकार के विष पैदा कर नुकसान पहुंचाता है। तीसरे, हमारी लार भी अम्लीय न होकर क्षारीय है, जो माँस को पचाने के अनुकूल नहीं है। हमारी साँस लेने की गति, तरल पदार्थों को पीने का तरीका आदि कई तर्क भी यही सिद्ध करते हैं।

चाहे वो पाषाण-युग के पैने-नुकीले पत्थर रहे हों या लौह-युग के धातुओं से निर्मित हथियार, मनुष्य ने हमेशा किसी न किसी हथियार की मदद से शिकार किया है। माँसाहारी प्राणी का शरीर स्वयं शिकार करने के लिए बना होता है। दरअसल मनुष्य आग की खोज के बाद माँसाहारी बना क्योंकि वह कच्चा माँस नहीं पचा पाता था। उससे पहले उसे प्रकृति में पर्याप्त मात्रा में फल और कंदमूल मिल जाते थे। अतः वह निरवद्याहारी जीव ही है।

ये अलग बात है कि उसे लम्बी प्राकृतिक आपदाओं के समय अपना जीवन बचाने के लिए माँसाहार पर विवश होना पड़ा था। परंतु वह पुनः अपने प्राकृतिक भोजन पर आ जाता था। बाद में माँसाहार एक शाही शौक बना, जब राजा-महाराजा अपनी बहादुरी का रुतबा दिखाने के लिए आखेट पर जाते थे। तब बाकी साथी शिकार हुए जीव को खाते थे। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य निरवद्य भोजन से पूर्ण स्वस्थ जीवन जीने में सक्षम था और आज भी है। किसी भी प्रकार का शिकार या माँसाहार उसकी कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं है। अगर हम इसके लिए कोई हिंसा करते हैं, तो वह बिलकुल फ़िज़ूल है।

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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी

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