खून और शोषण का असली कारण: प्रजातिवाद [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 19]
मानव की स्वार्थ, संकीर्ण और स्व-केन्द्रित बुद्धि ने जीवन के सभी अधिकार अपनी प्रजाति तक सीमित कर दिए हैं। चाहे वह जीवन का अधिकार हो, जीवन की स्वतंत्रता का अधिकार हो, समानता का अधिकार हो, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का अधिकार हो, समान जीवन-मूल्यों का अधिकार हो या दूसरों का शोषण कर एक विलासितापूर्ण जीवन जीने का अधिकार हो, मानव की सोच और दृष्टि अपनी प्रजाति तक ही केन्द्रित है। यही प्रजातिवाद की बुनियाद है।
मानव समाज न जाने कितनी शताब्दियों से सम्मानजनक एवं गौरवमयी जीवन के एक मूलभूत सिद्धांत को अब तक नहीं समझ पाया है, वह है “समानता का अधिकार”। प्राणियों के समानता के अधिकार का मानव इतिहास में कई स्तरों पर हनन हुआ है। कुछ न कुछ बेतुका आधार परिभाषित कर मानव ने किसी न किसी का शोषण करना अपना एक स्वभाव-सा बना डाला है। असमर्थ, निर्बल, निशक्त वर्ग को अपने से हीन बताकर भेदभावपूर्ण बर्ताव करते हुए, उनका शोषण कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की मानसिकता ने मानव की नैतिकता का सबसे अधिक पतन किया है। आधारहीन सिद्धांतों के बल पर वह हमेशा अपने खयालों की ऐसी काल्पनिक दुनिया गढ़ने का प्रयत्न करता रहा है, जिससे उसका अहम पुष्ट हो सके।
चाहे वह “पुरुष-प्रधान” समाज रहा हो या “महिला-प्रधान” समाज, लैंगिक भेद-भाव के आधार पर मानव का एक वर्ग दूसरे वर्ग पर अपनी तानाशाही थोपता रहा है। पुरुष-प्रधान समाज की मानसिकता ने नारी को “वस्तु-मात्र” समझ कर उसका शोषण करना शुरू कर दिया था। इसी प्रकार वैदिक-काल में बनी जातियों को आधार बना एक जाति को दूसरी से श्रेयस्कर मान हमने छुआछूत की घृणित परम्परा को जन्म दिया। दास-प्रथा के समय तो एक मनुष्य दूसरे को मनुष्य तक नहीं समझता था! चमड़ी के रंग (रंग-भेद) के आधार पर भी एक मनुष्य ने दूसरे मनुष्य का शोषण किया। संप्रदायवाद ने हमारे समाज में कई दंगों, हत्याओं और षडयंत्रों को अंजाम दिया है। हिटलर प्रणित होलोकॉस्ट में सम्प्रदाय के आधार पर हुई व्यापक नृशंस हत्याओं को इतिहास कभी भूल नहीं पायेगा।
समय के साथ और प्रगतिवादी विचारधारा से हुए कई सुधारवादी आन्दोलनों के कारण मानव-समाज को दास-प्रथा, छुआछूत, लिंग-भेद, सती-प्रथा, जातिवाद, रंगभेद जैसी अनेक कुरीतियों से काफी हद तक छुटकारा मिला। परंतु दुर्भाग्यवश, इन सबसे भी अधिक भयंकर और अब तक की सबसे विध्वंसक खूनी-संस्कृति की जनक, एक घिनौनी कुप्रथा आज हमारे समाज में महाविकराल रूप ले चुकी है। वह है प्रजातिवाद।
किसी वर्ग विशेष के मासूम व निर्दोष प्राणियों का मात्र इस असंगत तथ्य के आधार पर शोषण करना कि वे मानव नहीं है, प्रजातिवाद कहलाता है। जब किसी अन्य जाति, वर्ग, रंग अथवा लिंग के आधार पर भेदभाव कर किसी का भी शोषण करना न्यायोचित नहीं है, तो भला जानवरों का शोषण सिर्फ इस तथ्य के आधार पर कि वे दूसरी प्रजाति के सदस्य हैं, कैसे न्यायसंगत हो सकता है? न्याय और दया को इंसानों तक ही सीमित क्यों किया जाना चाहिये, जब हम जानते हैं कि जानवरों को भी पीड़ा का गहन अनुभव होता है? न्याय को किसी वर्ग विशेष तक सीमित करना, दूसरे वर्गों के साथ एक अन्याय है। न्याय तो सभी पक्षों को बराबरी का दर्ज़ा देने पर ही हो सकता है। पक्षपात ही तो अन्याय की जड़ है! सभी को समानाधिकार तो न्याय शब्द की परिभाषा का मूल-आधार है।
अमूमन माँसाहार करने के पीछे धर्म, संप्रदाय, परंपरा, जाति, स्वाद की पराधीनता, सामाजिक प्रतिष्ठा, गुरुर, पौष्टिकता की ज़रुरत, भौगोलिक आवश्यकता, मौसम, भोजन-पिरामिड, सम्पूर्ण पोषण आदि निरर्थक और संवेदनहीन तर्क दिए जाते हैं। वास्तव में इन सब के मूल में मानव की जो प्रवृत्ति कार्य करती है, वो है प्रजातिवाद की दूषित मानसिकता। जीवन-मात्र के प्रति सम्मान के भाव का अभाव और पशुओं के मूल-अधिकारों के प्रति सजगता का अभाव ही उसे माँसाहार और जीवों का शोषण करने की स्वछंदता प्रदान करता है। इस धरती पर हजारों प्रजातियों के प्राणी आदि काल से यहाँ रह रहे हैं और मानव उनमें से एक है। अतः इस धरती एवं उस पर मौजूद सभी प्राकृतिक संसाधनों पर सबका बराबरी का अधिकार है। परंतु मानव इस धरती पर अपने आप को श्रेष्ठतम जीव बता, सम्पूर्ण धरती पर अपना एकाधिकार समझता है। धरती पर उपलब्ध समस्त संसाधनों समेत सभी प्राणियों को अपना दास समझकर उनका शोषण करना अपना अधिकार मानता है।
चलो एकबारगी मान भी लिया जावें कि मानव इस धरती का श्रेष्ठतम जीव है, तो क्या? क्या यह तथ्य आपको दूसरों के अधिकारों का हनन करने की छूट दे देता है? क्या मानव की बर्बरता और क्रूरता उसकी श्रेष्ठता का द्योतक है? प्रेम, समभाव और नैतिकता के गुण ही तो मानव को इंसान का दर्ज़ा देते हैं, नहीं तो मानव और दानव में अंतर ही क्या रहा?
सभी जीवों का इस धरती पर जीवन एक-दूसरे पर परस्पर निर्भर करता है। अनेक दृश्य अथवा अदृश्य कार्य ऐसे हैं जो दुनिया के अरबों प्राणी लगातार अपने प्रयासों से कर रहे हैं, जिनके कारण यह दुनिया टिकी हुई है। कई ऐसे कार्य हैं जो मनुष्य नहीं कर सकता, पर पशु-पक्षी, कीड़े-कीटाणु, जलीय जीव उन्हें बखूबी अंजाम देते रहते हैं। सभी का संतुलित अस्तित्व मानव के स्वयं के अस्तित्व के लिए बेहद अनिवार्य है। इकोलोजी का अध्ययन करने वाले ज़रूर यह बात कुछ-कुछ समझने लगे हैं। परंतु बौद्धिक रूप से समझना अलग बात है और भावनात्मक रूप से समझना एकदम अलग!
आगे मैं, माँसाहारियों द्वारा अपने पक्ष में रखे जाने वाले कुछ बहुप्रचलित तर्कों एवं आरोपों का संक्षिप्त उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ।
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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी