आंखें

in #fish6 years ago (edited)

मैं एक फ़ूड पोर्टल देख रहा था.

उस पोर्टल पर एक लेख था- "व्हाय सी फ़ूड इज़ ग्रॉस!" सी-फ़ूड क्यों घृणित है!

उस लेख में कुछ तस्वीरें थीं.

एक तस्वीर में दिखाया गया था कि कुछ लोग रेस्तरां में फ़िश खा रहे हैं। फ़िश को पूरा ही पका लिया गया था, जैसा कि इन दिनों रवायत है।

मछली की विस्फारित आंखें यथावत थीं, जैसी मृत्यु से ऐन पहले रही होंगी!

फ़िश का पेट चीरने पर पाया जाता है कि उसमें से समुद्री घास और सेवार निकलती है!

वह बिम्ब मेरे ज़ेहन में छप गया!

मुझको लगा उस मरी हुई मछली ने रेस्तरां की उस मेज़ पर उस समुद्री घास के ज़रिये अपनी अस्मिता की रक्षा कर ली थी, जो उसने जाने कब, किस तंद्रा में, क्या सोचकर खाई होगी।

बाद उसके, उसे जाल में फांस लिया गया होगा, या कोई कांटा उसके हलक़ में अटक गया होगा। बहुत सम्भव है कि कांटे पर चारे के रूप में जो घास लगाई गई थी, उसका भी कुछ अंश उसके पेट में रहा हो।

भय और मृत्युबोध के मारे मछली की आंखें फैल गई होंगी। उसके गलफड़े पानी के लिए तड़प उठे होंगे। किसी रेत, किसी बालू, काठ की किसी नाव या इस्पात के किसी कंटेनर पर उसकी आख़िरी सांस टूटी होगी।

लेकिन रेस्तरां की उस मेज़ पर वो केवल एक शिकार नहीं रह गई थी, उसका अपना एक वजूद उपस्थित हो आया था।

लोग भूखे थे और उसे खा जाना चाहते थे, लेकिन उसका पेट चीरने पर निकली घास, काई और सेवार ने उनके मन को जुगुप्सा से भर दिया, और उन्होंने हिक़ारत से आंखें फेर लीं।

सी-फ़ूड इज़ ग्रॉस! इसलिए नहीं कि मछली को मारकर खाया गया था। इसलिए कि उसके पेट से निकला उसका आख़िरी भोजन रेस्तरां में खाना खाने वालों के लिए ऊबकाई लाने वाला साबित हुआ था।

लेकिन अपनी आदिम चेष्टाओं की उस अभिव्यक्ति के माध्यम से मरी हुई मछली ने मरने के बावजूद अपने वजूद को वहां साबित कर दिया था।

दुनिया अब एकतरफ़ा नहीं रह गई थी, जिसमें एक तरफ़ शिकारी था, दूसरी तरफ़ शिकार। दुनिया में समतुल्यता की स्थापना हो गई थी और वह मरी हुई मछली दूसरी दुनिया का प्रतिकार कर रही थी।

और तब मुझको फ़ेदरीको फ़ेल्लीनी की फ़िल्म "ला दोल्चे वीता" याद आई, जिसके आख़िरी दृश्य में समुद्र तट पर पिकनिक मना रहे चंद लोग एक बड़ी भीमकाय मछली के शव को बरामद करते हैं। उनके लिए वह "सी-मॉन्सटर" एक कौतुक का विषय बन जाता है।

लेकिन फ़िल्म का नायक (माचेर्ल्लो मास्त्रोयान्नी) उस मछली की आंख को एकटक देखता रह जाता है। मछली की आंखें खुली की खुली रह गई थीं, जैसी कि सभी शवों की रह जाती हैं। उनमें भय, आकर्षण और सम्मोहन था। वे आकाश के भीतर झांक रही थीं।

एक बार किसी मरी हुई मछली की आंखों में देर तक झांककर देख लेने के बाद फिर आप उसी तरह से आंखें मूंदकर चैन से नहीं सो सकते, जैसे कि मछलियां पानी के भीतर आंखें मूंदकर नहीं सो पातीं!

मछलियों की अदम्य गरिमा समुद्रों से भी गहरा रहस्य है!

ना जाने कब बंद होगा ये अत्याचार इन जीवो के ऊपर

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