Education and Indian Culture - (Hindi Version)
दोस्तो , आज दिल कर रहा है कि कुछ अपनी जिंदगी के तज़ुर्बे आप लोगों के साथ सांझा करूं ।
बात करेंगे ;
" रियल एजुकेशन व भारतीय सभ्यता " की ।
भारत में जैसे जैसे एजुकेशन का स्तर बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे ही भारतीय सभ्यता और संस्कारों का स्तर गिरता जा रहा है। क्योंकि एजुकेशन तो सभी स्कूल दे रहे हैं लेकिन रियल एजुकेशन सिर्फ नाम तक ही सिमट गई है । रियल एजुकेशन वही है जो स्कूली शिक्षा के साथ साथ बच्चों को अच्छे संस्कार, पारिवारिक मूल्यों और सामाजिक दायित्वयों का भी पूरा ज्ञान दे। हो सकता है कहीं हो - लेकिन मुझे कोई ऐसा संस्थान या बोर्डिंग स्कूल नज़र नहीं आया जो सच में रियल एजुकेशन दे रहा हो ।
जब मुझे आने वाले समय की मुश्किलें साफ दिखाई देनी लगीं तो मैंने खुद एक बोर्डिंग स्कूल लगाने का फैसला लिया । अपनी ज़िंदगी के 10 खूबसूरत साल दिए । इस स्कूल को जब लगाया था तो बस इसी भाव से कि कैसे आने वाली पीढ़ी को भारतीय सभ्यता की अटूट सचाई , पारिवारिक मूल्य और सामाजिक संवेदनाओं के बारे में अवगत करा सकूँ ।
मेरी कोशिश कामजाब रही - दो साल में ही मुझे अपने स्कूल में आने वाले समय के नेता और अभिनेता दिखाई देने लगे । अपनी सौच पर गर्व होने लगा और मैं हर दिन अपनी सौच को बच्चों में प्रज्वलित हुए देखता था।
नए नए तज़ुर्बे किये - और दो सालों की सख्त मेहनत से स्कूल का नाम हिमाचल के अग्रणी स्कूलों में लिया जाने लगा। लेकिन शायद मेरा गरूर ही मेरे रास्ते में आ गया , मैं भूल गया कि यह स्कूल मेरे अकेले का नहीं - इस में मेरे कुछ और साथियों का धन भी लगा हुआ है , जो चाहते हैं कि स्कूल का हर फैसला मिलकर लिया जाए। वो शायद यह नहीं जानते थे कि मिलकर फैसला सिर्फ व्योपार चलाने के लिए तो हो सकता है - लेकिन एक सौच को कैसे जिंदा करना है - यह जनून किसी सलाह मशवरे का महोताज़ नहीं होता।
नतीजा ..... झगड़े - कोर्ट - डेट - और बस !
लेकिन आज भी जब कोई मुझसे पूछता है कि बच्चे को किस बोर्डिंग स्कूल में लगाएं तो मैं बस चुप रह जाता हूँ । आज भी मुझे .......
इस लिए , मेरा एक निजी सुझाब है उन लोगों के लिए जिनके पास अच्छे विकल्प होते हुए भी बच्चों को घर से दूर बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाने की इच्छा रखते हैं ........
"मत करो ऐसा" - "मत करो ऐसा"
जो बच्चा 17 साल से पहले घर से दूर चला जाता है वो बस फिर "दूर ही चला जाता है"- परिवार से, संस्कार से, यहां तक कि अपने आपसे भी।
जो संस्कार और परिवार की विरासत उसको घर रह कर सीखनी थी वो वह कभी नहीं सीख पाता। इतना ही नहीं इस उम्र में घर से दूर रह कर जो वो सीख गया है वो ही अब उसकी विरासत है - जो इतनी घातक है कि इसका आज अंदाज़ लगाना मुश्किल है।
भारतीय सभ्यता तो घर पर ही सीखी जा सकती है - बाहर तो बस इंग्लिश विंग्लिश ही है - यही इंग्लिश विंग्लिश जब अपने बच्चे बोलते हैं तो हमें अच्छा लगता है - मन को तसल्ली होती है - सर गर्व से ऊंचा होने लगता है - ऐसे लगता है जैसे पैसे पूरे हो गए। लेकिन अपनी गलती का असली अहसास हमे तब होता है जब यही बच्चे हमें यह सीखाने लगते हैं कि "जमाना बदल गया है मॉम - डैड"।
अब आपको लगता है - यह क्या हो गया ?
हम से कहाँ भूल हो गई ?
आज शायद आपको समझ आ गई होगी -
...... " कहां भूल हो हुई " ।
अब करैं तो क्या ... ?
यहां तक हो सके - बच्चों को कॉलेज जाने से पहले घर से दूर न करें ।
बच्चों की परवरिश सही से करनी है तो कोशिश करो जन्म से लेकर 5 साल तक व आपके साथ हर पल जिये। 5 साल के बाद ही उसे 1st क्लास में स्कूल भेजें । आया आपकी सहूलियत के लिए हो न कि बच्चे की परवरिश के लिए। बच्चा जितना छोटा है उतना ही बड़ा Psychologist होता है। व आपके हर भाव को पहचानता है। जितना आप उसको जानने की कोशिश करते हैं उतना वो आपको भी जान रहा है।
अगर आपके पास आज उसको देने के लिए समय नहीं है तो कल उसके पास भी समय नहीं होगा। उस समय अगर वो आपकी देख रेख के लिए नर्स रखदे तो आपको दुखी नहीं होना चाहिए ।
रिश्ते एक इन्वेस्टमेंट हैं - जो पहले कमाए जाते हैं - तभी जताए जाते हैं ।
जब तक बच्चे को सहारा चाहिए माँ बाप खुशी से देते हैं - इस शर्त या सौच से नहीं कि बुढापे में वो हमारा सहारा बनेंगे - हाँ ! जितना दर्द और त्याग वो करते जाते हैं वैसे वैसे ही अंतर्मन में एक उम्मीद बंधती जाती है कि जब हमें सहारे की जरूरत होगी तो वो हमारा ध्यान रखेंगे ।
दोनो बातों में बहुत अंतर है - इस अंतर को समझना और महसूस करना ही असली शिक्षा यानी रियल एजुकेशन है , भारतीय सभ्यता की मूल कड़ी है ।
यह तो बस एक उदाहरण है - न जाने ऐसे कितने उदहारण हमारे जीवन में रोजाना देखने को मिलते हैं - जरूरत है उनको समझने की - उस भाव को महसूस करने की जो पढ़ाने से नहीं आता । यह तो दिल से दिल पर उतरता है । यह या तो घर पर रह कर या किसी ऐसे बोर्डिंग स्कूल में ही सीखा जाता है यहां पारिवारिक मूल्यों को बच्चों के जीवन में कैसे उतारा जाता है इसकी कला उसको आती हो ।
"भारतीय सभ्यता को समझ पाना - हर किसी के बस की बात नहीं "।
कहाँ तो युवाओं को उनकी जुमेदारी सिखानी चाहिए और कहां - आजकल एक सदगुरू जी तो बच्चों की उत्पत्ति को माँ बाप की अय्याशी ही बता रहे हैं , कहते हैं कि आप होते कौन हैं उनका ध्यान रखने वाले - उनका जीवन उनकी संपत्ति है - आप उनके फैसले लेने वाले होते कौन हैं। आपने जो मजे लेने थे ले लिए - अब अपनी गलती को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल आप नहीं कर सकते - आप बुढ़ापे में उनसे अपनी सेवा की उपेक्षा नहीं कर सकते।
वाह सदगुरू जी - मान गए आपको - आपतो बडे स्मार्ट निकले - भारत की सारी युवा पीढ़ी आपका गुणगान क्यों नहीं करेगी - आपने तो उनको बोझ मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं आपने तो माँ बाप के पवित्र बंधन को ऐसे परिभाषित कर दिया - जैसे बच्चे को जन्म देकर उन्होंने कोई पाप कर दिया हो ।
माँ की ममता और बाप की पीड़ा का अहसास तो किया होता ।
इसी लिये मैं कहता हूं कि ;
"भारतीय सभ्यता को समझ पाना - हर किसी के बस की बात नहीं "।