जैन दर्शन - अंतरात्मा की परिणति - भाग # 1
सुमति चरण - कज आतम अरपणा।
यह भगवान सुमतिनाथ की प्रार्थना है । इसे गाते कई लोगों को कई दिन हो चुके हैं । यद्यपि इस प्रार्थना का आशय संक्षेप में इतना ही है कि परमात्मा के चरण-कमलों में आत्मा को - अपने आपको अर्पित कर दिया जाये । फिर भी यह विषय बड़ा गंभीर है । ऊपर-ऊपर से बात छोटी और सीधी दिखाई पड़ती है । कौन नहीं चाहेगा कि मैं परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाऊँ ? किन्तु समर्पण करने की विधि को भली-भांति समझे बिना समर्पण हो कैसे?
आज समर्पण करने की विधि पर, थोड़े शब्दों में यही बात बतलाता हूँ ।
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जड़ पदार्थ जिन्हें हम इन्द्रियों द्वारा ग्रहण कर सकते है, सहज ही समझे जा सकते है और ग्रहण भी किये जा सकते है । मगर आत्मा अतिशय सूक्ष्म वस्तु है । वह इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है -
नो इन्दियग्गेज्भ अमुत्तिभावा ।
रूप होता तो आंख से देखते, रस होता तो जिह्वा से चख लेते, गंध टोह तो नाक से सूंघ कर पहचान लेते और स्पर्श होता तो स्पर्श स्पर्शनेन्द्रिय से छु कर जान सकते । मगर आत्मा में यह सब है नहीं, अतएव वह इन्द्रीय-ग्राह्य नहीं है और इन्द्रीय-ग्राह्य न होए के कारण मन की भी उसमें प्रव्रत्ति नहीं होती । इस प्रकार इन्द्रियों की और मन की पकड़ में आत्मा आती नहीं है । उसका स्वरूप अगम्य और अगोचर है । ऐसी इन्द्रियागम्य, अनिर्वचनीय और अदभुत आत्मा को समर्पित किया जाये तो कैसे ?
परन्तु ज्ञानी जनों ने रास्ता बहुत सरल कर दिया है । जब रास्ता मालूम हो तो गति करने में कठिनाई नहीं होती ।
ज्ञानियों ने आत्मा की तीन प्रकार की परिणतियों के आधार पर तीन क्षेणियाँ बतलाई है
(१) बहिरात्मा
(२) अन्तरात्मा और
(३) परमात्मा ।
आज के लिए बस इतना ही, कल इससे आगे की बात करेंगे ।
अंतरात्मा की Steeming