सत्यार्थ प्रकाश 175
(प्रश्न) तो आप तच्छब्द से क्या लेते हैं?
(उत्तर) स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदँ् सर्वं तत्सत्यँ् स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति।। - छान्दोन।।
वह परमात्मा जानने योग्य है जो यह अत्यन्त सूक्ष्म इस सब जगत् और जीव का आत्मा है। वही सत्यस्वरूप और अपना आत्मा आप ही है। हे श्वेतकेतो प्रियपुत्र! तदात्मकस्तदन्तर्यामी त्वमसि। उस परमात्मा अन्तर्यामी से तू युक्त है। यही अर्थ उपनिषदों से अविरुद्ध है। क्योंकि-
य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम्।
आत्मनोऽन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः।
- यह बृहदारण्यक का वचन है।
महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी स्त्री मैत्रेयी से कहते हैं कि हे मैत्रेयि! जो परमेश्वर आत्मा अर्थात् जीव में स्थित और जीवात्मा से भिन्न है; जिस को मूढ़ जीवात्मा नहीं जानता कि वह परमात्मा मेरे में व्यापक है; जिस परमेश्वर का जीवात्मा शरीर अर्थात् जैसे शरीर में जीव रहता है वैसे ही जीव में परमेश्वर व्यापक है । जीवात्मा से भिन्न रहकर जीव के पाप पुण्यों का साक्षी होकर उन के फल जीवों को देकर नियम में रखता है वही अविनाशीस्वरूप तेरा भी अन्तर्यामी आत्मा अर्थात् तेरे भीतर व्यापक है; उस को तू जान। क्या कोई इत्यादि वचनों का अन्यथा अर्थ कर सकता है ?
'अयमात्मा ब्रह्म' अर्थात् समाधिदशा में जब योगी को परमेश्वर प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि यह जो मेरे में व्यापक है वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है इसलिये जो आजकल के वेदान्ती जीव ब्रह्म की एकता करते हैं वे वेदान्तशास्त्र को नहीं जानते।
Great thought.