जानवरों के प्रति क्रूरता
इतालो कल्वीनो के नॉवल "द कासल ऑफ़ द क्रॉस्ड डेस्टिनीज़" में यह "फ़ंतासी" है कि एक दिन पशु जंगलों से आएंगे और मनुष्य को नगरों से विस्थापित करके सभ्यता के उपकरणों पर काबिज़ हो जाएंगे।
यह इतना असंभव भी नहीं है। अगर जैविक विकासक्रम के तहत पशुओं में किंचित भी बुद्धि का विकास हुआ, तो वे ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि दैहिक बल में तो पशु मनुष्य से श्रेष्ठ हैं ही।
बहरहाल, "रोमांचक" होने के बावजूद इस कल्पना को "नैतिक" नहीं कहा जा सकता। इसलिए नहीं कि पशुओं को मनुष्यता पर विजय प्राप्त नहीं करना चाहिए। बल्कि इसलिए कि यह "फ़ंतासी" पशुओं को मनुष्य की तरह देखने का वही उद्यम करती है, जो जॉर्ज ओरवेल ने "एनिमल फ़ार्म" और रूडयार्ड किपलिंग ने "द जंगल बुक" में किया था।
यह एक "अनैतिक फ़ंतासी" है, क्योंकि यह "यथास्थिति" में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं करती। यह केवल "प्रतिशोध" के "काव्य-न्याय" से भरी परिकल्पना है।
काफ़्का का "मेटामोर्फ़ोसीस" इसकी तुलना में नैतिक आभा से कहीं दीप्त है। काफ़्का का नायक ग्रेगोर साम्सा एक सुबह जागता है तो पाता है कि वह एक तिलचट्टे में तब्दील हो गया है। वह बिस्तर से उठने की कोशिश करता है, लेकिन नाकाम रहता है। उसकी पीठ ढाल की तरह गोल और कड़ी हो जाती है और उसकी आंखों के सामने उसकी असंख्य टांगें दयनीय तरीक़े से हिलती रहती हैं।
काफ़्का अकसर ख़ुद को पशुओं की तरह देखता था। तिलचट्टा, चूहा, वानर, छछूंदर, श्वान, गिद्ध, इन सब पर उसने "फ़र्स्ट पर्सन" में कहानियां लिखी हैं। यह अवश्यंभावी था कि इसके बाद काफ़्का जीव-हत्या का घोर विरोधी बन जाता।
आप तब जीव-हत्या के विरोधी नहीं बनते हैं, जब आप क़त्लख़ानों के भयावह दृश्यों को देखकर पसीज जाते हैं। आप तब जीव-हत्या के विरोधी बन जाते हैं, जब आपको यह महसूस होता है कि उस जगह पर आप भी हो सकते थे।
जरा एक बात सोचिये ना केवल गाये नहीं बल्कि कोई भी जीव इस तरह की क्ररुता के हकदार हैं
गायें काटी जाती हैं!
भोजन के लिए, धर्म के लिए, क़ारोबार के लिए. किंतु इतना ही नहीं, प्रतिशोध के लिए भी, शक्ति प्रदर्शन के लिए भी, राजनीतिक प्रतिरोध तक के लिए! तमाम अनैतिक कारणों से गायों की गर्दन पर छुरियां चलाई जाती हैं, और केवल गायों की ही नहीं!
मुझे तब अचरज हुआ, जब एक दिन मैंने गोक़शी के मामले में यह प्रतिक्रिया देखी कि ऐसा सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह जघन्य है। हां, अगर आप परदों के पीछे यह करते हैं, तो हमें क्या आपत्ति हो!
उन्नीस सौ चौबीस में ही चल बसा काफ़्का अगर आज होता तो इस दृश्य की कल्पना वह इस तरह से नहीं करता कि यह देखकर मुझे उबकाई आ रही है, कृपया इसे परदे के पीछे करो!
वह इस दृश्य की कल्पना ऐसे करता कि किसी और की नहीं, उसी की गर्दन पर छुरी चलाई जा रही है! वह अपने कंठ पर उस धात्विक धार को अनुभव कर रहा है! वह चीखना चाहता है, लेकिन चीख नहीं पा रहा, क्योंकि उसका कंठ भेद दिया गया है, जिसमें से रक्त के फौआरे छूट रहे हैं।
वह नज़रें घुमाकर देखता है कि कुछ सभ्य लोग इस दृश्य पर जुगुप्सा से भरे हुए हैं और यह गुहार लगा रहे हैं कि कृपया उनकी आंखों के सामने यह ना किया जाए, क्योंकि यह उन्हें विचलित करता है, और इसके बाद वे अपना नाश्ता चैन से नहीं कर सकते।
या शायद काफ़्का के स्वयं के साथ नहीं होता, उसके बच्चों के साथ होता, क्योंकि जिन पशुओं के साथ यह होता है, रोज़ हो रहा है, शायद वे भी धरती की सगी संतानें थीं!
उस सुबह मैं एक अंग्रेज़ी अख़बार का "एडिटोरियल" पढ़ रहा था। संपादक महोदय लिख रहे थे कि सरकार ने खुली मंडियों में पशुओं की ख़रीद-फ़रोख़्त पर जो नियामक क़ानून लागू करने की मंशा जताई है, उससे पशु-मांस की "इकोनॉमी" पर बहुत बुरा असर पड़ेगा।
"इकोनॉमी", हम्म्म। सुबह की रोशनी में एक घिनौने घाव की तरह दिपदिपाता हुआ वह शब्द : "हत्या की अर्थव्यवस्था!"
कभी कभी तो लगता है कि ये पढ़े लिखे लोग इतना दोगलापन लाते कहाँ से हैं मतलब एक तरफ इकोनॉमी और वही दुसरो के साथ हो तो व्यापार
मैं कल्पना करने लगा कि संपादक महोदय ने अपने लैपटॉप पर वह संपादकीय लिखने के बाद मुलायम तरीक़े से सुन्न हो चुकी अपनी अंगुलियों के पोरों को किस तरह से सहलाया होगा। ज़िंदगी ऐसे मौक़ों पर कितनी ख़ूबसूरत, कितनी आरामदेह मालूम होती है, जब आप "नृशंसता की अर्थव्यवस्था" के बारे में लेख लिख रहे होते हैं!
वर्ष 1931 में जर्मनी में नाज़ी हुक़ूमत सत्ता में आई थी। 1933 में डकाऊ में पहला यंत्रणा शिविर संचालित होने लगा था। 1945 तक ऑश्वित्ज़, ट्रेबलिंका, बुख़ेनवॉल्ड सहित बीसियों यंत्रणा शिविर नाज़ी जर्मनी के आधिपत्य वाली धरती पर संचालित हो रहे थे। इन शिविरों का इकलौता मक़सद यहूदियों को प्रताड़ित करना और उनकी हत्या करना था।
लेकिन ये शिविर नाज़ी जर्मनी की "इकोनॉमी" का आधार भी थे। "फ़ोर्स्ड लेबर" के तहत मारे जाने से पूर्व इन बंधक यहूदियों से ख़ूब काम लिया जाता था। बड़े पैमाने पर कर्मचारी इन शिविरों में ड्यूटी पर तैनात थे। उन्हें क़त्ल की संगीन कार्रवाइयों के लिए तनख़्वाहें मिलती थीं।
जिन नाज़ी यंत्रणा शिविरों को मनुष्यता के माथे पर कलंक माना जाता है, महोदय, उनकी भी एक "इकोनॉमी" थी!
"ह्यूमन ट्रैफ़िकिंग" की भी एक "इकोनॉमी" होती है। "देह व्यापार" तो "व्यापार" ही है। ऐसा कोई अपराध नहीं है, जिसके पीछे "माफ़िया" ना हो, "इकोनॉमी" ना हो।
और इसी के साथ हम सभ्यताओं के विकासक्रम को भी निरस्त कर देंगे।